**PROUT-RASHMI**
PROUT is LIGHT(RASHMI) for this Century. In future, PROUTistic (PROgressive Utilization Theory based) Governments; handled and operated by Sadvipras (Anti-Corrupt Spiritual Economists) will be Established Over Globe! Let us understand and discuss on PROUT (PROgressive Utilization Theory). Thanks! -Agyatasheesh, PSN:02/ATAMPA
Monday, February 6, 2012
The Best Form of Government
Friday, January 13, 2012
Mystic Search, Spiritual View: Auto Over Flow(Autooverflow) of Money, Love & Fame-00.04
Love & Fame-00.04
.............. Mind is an apparatus for thinking, reasoning,
analysing, deciding etc. - but these activities of the mind start due
to DESIRE/S. When any DESIRE arises in our consciousness - the
conscious, subconscious and unconscious parts of mind become activated
and thinking, reasoning....... etc. happened. And this way the Search
started. Continued to Mystic Search, Spiritual View: Auto Over
Flow(Autooverflow) of Money, Love & Fame-00.05
--
*रश्मिप्रीत* http://sribhagwatgeeta.blogspot.com
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http://prout-rashmi.blogspot.com
Saturday, January 7, 2012
!!श्रीमभ्दगवग्दीता, अध्याय:०१/श्लोक:०१/पोस्ट:०२!!
!!श्रीमभ्दगवग्दीता, अध्याय:०१/श्लोक:०१/पोस्ट:०२!!
!!ॐ नमो भगवते!!
*
घृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समावेता युयुत्सवः!
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय!!१!!
घृतराष्ट्र बोले, हे सञ्जय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्ध की इच्छा रखने वाले मेरे और पांडुके पुत्रों ने क्या किया?!!१!!
उपरोक्त श्लोक 'अर्जुन विषद योग' (प्रथम अध्याय: श्रीमभ्दगवग्दीता) का है.
"श्रीमभ्दगवग्दीता: मेरी समझ में" नामक लिखी जाने वाली इस कृति के कर्ता स्वमं भगवान शीकृष्ण हैं.
मुझ विमूढ़ में ऐसी कोई प्रज्ञा या सामर्थ्य नहीं की 'श्रीमभ्दगवग्दीता' के एक श्लोक को भी समझ सकूँ.
परमपुरुष, परमात्मा भगवन श्रीकृष्ण ही अनुप्रेरित करते है, सब कुछ अनुकूल बनाते है,
और व्यक्त होने की कृपा करते है मुझ तुच्छ की लेखनी के माध्यम से.
इस कृति में मैं 'श्रीगीता' के मूल श्लोकों एवं टीकाओं को
गीताप्रेस, गोरखपुर के द्वारा प्रकाशित "पद्मपुराणान्तर्गत प्रत्येक अध्याय के महामत्य्मसहितः श्रीमभ्दगवग्दीताः १६" से ले-लेकर आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ.
मैं गीताप्रेस, गोरखपुर(प्रकाशक एवं मुद्रक) का आभारी हूँ.
उनका वेबसाइट है www.gitapress.org
विषाद मानवता है, विषादमुक्त देवता है, विषादहीन पशुता है.
अर्जुन विषादयुक्त हो जाते हैं, श्रीकृष्ण सर्वथा विषादमुक्त हैं,
और युद्धक्षॅत्र में आये शेष सारे कौरवों, पांडवों तथा उनकी सेनाओ के मनों में कोई विषाद नहीं!
यह एक स्पस्ट स्थिति है, मानसिक अवस्था है- इस वक्त युद्धभूमि में उपस्थित सभी मनुष्यों की.
पशुता, मानवता, देवता – तीनों गुण मनुष्य शारीरधारी जीव में ही संभव है और गुणानुकूल विचार, भाव तथा कर्मादि होते हैं.
'घृतराष्ट्र' यह शब्द देखिये.
पुराणों की कथाओं में इनके रचियता श्रीवेदव्यासजी ने मुख्य-मुख्य पात्रों के नाम बङे सार्थक दिए हैं.
मैं यह नहीं समझता की सारे नाम काल्पनिक है, लेकिन इश्वरकृपा से सार्थक अवश्य है.
'घृतराष्ट्र'- क्या करेंगे आप इस शब्द का अर्थ- यही न कि दोषों, बुराइयों, गुस्ताखियों,
अज्ञानयुक्त कर्मो और व्यवस्थाओं वाला राष्ट्र!
राजतान्त्रिक व्यवस्था में जैसा राजा होगा, वैसी ही प्रजा होगी, राष्ट्र होगा, सारी व्यवस्थाएं होगीं.
प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में जैसी प्रजा होगी, वैसा ही राजा होगा, सारी व्यवस्थाएं होगीं.
हमें इस बात को बार-बार ध्यान में रखना होगा कि वह कल जिसमे श्रीगीता का अवतरण हुआ,
उस काल में राजतान्त्रिक व्यवस्था थी,
और आज हमलोग प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में जीने वाले, के सहभागी मनुष्य हैं.
"घृतराष्ट्र बोले,
हे सञ्जय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्ध की इच्छा रखने वाले मेरे और पांडुके पुत्रों ने क्या किया?"
घृतराष्ट्र अंधे हैं, सूरदास भी अंधे हैं.
घृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण नहीं दिखाई पङते, नहीं दर्शन होता उन्हें श्रीकृष्ण का जब वो आते हैं,
सम्मुख होते हैं,
बोलते हैं,
शांति का प्रस्ताव रखते हैं,
मंगाते हैं वो राज्य, कपट के द्वारा जीता गया राज्य,
उनके पुत्र दूर्जोधन के द्वारा जूए में जीता गया वो राज्य,
वापस मांगते हैं
क्योंकि अब पांडवों की वनवास की अवधि खत्म हो गयी,
पांडव अब वापस आ गए है, प्रकट हो गए हैं अज्ञातवास से भी
जो १४ वर्षों के वनवास के अंतिम एक वर्ष का था.
श्रीकृष्ण घृतराष्ट्र की सभा में आते हैं उनका शांतिदूत बन कर!
लेकिन घृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण नहीं दिखाई पङते,
नहीं सुनाई पङते कृष्ण के शब्द,
नहीं समझ में आता हैं श्रीकृष्ण का, पांडवों का शांति-प्रस्ताव!!!!
सूरदासजी भी अंधे है-
लेकिन वे श्रीकृष्ण की मुरली की मधुर तान सुन पाते हैं,
डूब पाते हैं,
आत्मविभोर हो पाते हैं,
सब कुछ : अपना ज्ञान, अज्ञान, अहंकार –
सबकुछ समर्पित कर पाते हैं श्रीकृष्ण के चरणों में,
परमगति, परममति को प्राप्त हो पाते हैं!
अपने परमप्रिय प्रभु को स्पर्श कर पाते हैं,
दर्शन कर पाते हैं
श्रीकृष्ण के. श्रीकृष्ण के सारे अध्यात्मिक,
वैज्ञानिक,
दार्शनिक,
चमत्कारिक,
नैतिक,
बौद्धिक और मानसिक व्यक्तित्वों,
कलाओं के साक्षात दर्शन का आनंद ले पाते है-
सदैव, अपने सम्पूर्ण जीवन काल में!!!
क्या फर्क है- घृतराष्ट्र और सूरदासजी की अन्धता में?
क्रमश............ !!श्रीमभ्दगवग्दीता, अध्याय:०१/श्लोक:०१/पोस्ट:०३!! में
!!ॐ नमो भगवते!!
- अमृताकाशी
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Thursday, December 29, 2011
!!श्रीमभ्दगवग्दीता, अध्याय:०१/श्लोक:०१/पोस्ट:०१!!
!!ॐ नमो भगवाते!!
परमगीत पुनीता: भगवत गीता!
गीता: महागीत है, महासंगीत है. ज्ञानगीत है, अध्यात्मगीत है.
गीता कोई कथा-कहानी जैसी नहीं है. गीता विशुद्ध ज्ञान है, सत्य-ज्ञान है.
सर्वोपयोगी, सर्वोत्कृष्ट है, ज्ञान का महासागर है गीता.
यह हर काल के, हर जाति के, हर वंश, गोत्र, धर्म, सम्प्रदाय, संघ के
मनुष्यों के लिए आत्मा सदृश्य अमृत है, अनैश्वेर है, शास्वत है.
गीता में श्रीक्रष्ण अपने सखा, शिष्य, प्रिय अर्जुन को कहते हैं-
"हे अर्जुन! जो ज्ञान मैनें सृष्टि के आरम्भ में सूर्य को कही थी, वही
ज्ञान, वही परमज्ञान आज तुझे मैं कह रहा हूँ." – यह घोषणा उस शरीर नाम से
जाने जाने वाले कृष्ण, जिस शरीर के जनक वसुदेवजी हें, जननी देवकीजी हैं-
उस शरीर की यह घोषणा नहीं है.
यह घोषणा करने वाला परमात्मा (परम् आत्मा) हैं , ईश्वर हैं , सर्वेश्वर
हैं, परमेश्वर हैं,
या किसी नाम से जाना जाने वाला, किसी धर्म के अनुआयियों द्वारा माना या
जाना जाने वाला-
सर्वव्यापी, सर्वकालीन, सर्वज्ञ, सर्वातीत, सर्वलिप्त, सर्वालिप्त- परम
अस्तित्व की है, अनंत अस्तित्व की है.
यह घोषणा उसी अनंत परम् अस्तित्व की है कि:
"सृष्टि के आरंभ में मैंने जो ज्ञान सूर्य को कही थी वही ज्ञान हे
अर्जुन! उसी ज्ञान को मैं आज तुझसे कह रहा हूँ." यह कहना, यह घोषणा विराट
परम् अस्तित्व की है
जो पूर्ण रूप में वसुदेवजी के पुत्र श्रीकृष्णजी के मुखारविंद से की जा रही है.
परमात्मा हर काल में, हर युग में, हर अर्जुन के समक्ष अपने संपूर्ण रूप
में, विराट रूप में प्रकट होता है,
गीत गाता है, गीता को प्रकट करता है, महाज्ञान को प्रकट करता है,
आत्मज्ञान को, प्रमात्मज्ञान को अभिव्यक्त करता है.
यहीं श्रीकृष्ण के द्वारा उपरोक्त घोषणा में श्रीकृष्ण के कहने के भाव
हैं- मेरी समझ से.
गीता महाअध्यात्म है, महागीत है, महाकाव्य है.
समस्त जगत की उत्पति, सञ्चालन प्रकृति और विनाश प्रकृति के अनंत गूढ़तम
रहस्यों को प्रकट कराती है-गीता! जङ जगत, चेतन जगत, अंतर्चेतन जगत,
अतिचेतन जगत-
सबों का विज्ञानं और मनोविज्ञान संपूर्ण और स्पष्ट रूप
आलोकित की है परमात्मा ने, श्रीकृष्ण ने:
सर्वकाल के मनुष्यों के लिए: श्रीमभ्दगवग्दीता में, श्रीगीता में.
श्रीगीता के श्लोकों में एक शब्द भी अनावश्यक नहीं कहा गया है.
सार्थक हें, परमार्थक हें, रहस्यमयी हैं सारे शब्द गीता के सारे श्लोकों के.
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समावेता युयुत्सवः!
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय!!
क्रमश:...........
!!ॐ नमो भगवाते!!
-अमृताकाशी
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Saturday, December 24, 2011
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
हे कृष्ण समझा दो ना, हमें तू अपनी गीता;
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
शुद्ध आध्यात्मिक, शुद्ध वैज्ञानिक महागीत पुनीता;
हे कृष्ण समझा दो ना, हमें तू अपनी गीता;
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
**
अर्जुन सा एकाग्र नहीं हैं,
बुद्धि तीव्र कुशाग्र नहीं है;
महाबली ना महाबाहो हैं,
हम सब हैं भयभीता;
हे कृष्ण समझा दो ना, हमें तू अपनी गीता;
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
***
हम तो बड़े कमजोर मनुज हैं,
असहाय मजबूर मनुज हैं;
कदम कदम पे हम हैं फिसलते,
और हैं बड़े पतिता;
हे कृष्ण समझा दो ना, हमें तू अपनी गीता;
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
****
तुम समर्थ बस और न कोई,
दुष्ट दमन कर सके न कोई;
धृतराष्ट बन बैठे हैं सब,
मोह ने इनको है जीता;
हे कृष्ण समझा दो ना, हमें तू अपनी गीता;
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
*****
हम सब भी हैं मोह के वश में,
काम, क्रोध, मद, लोभ के वश में;
पर हम गिरे हैं चरण तुम्हारे,
उठा लो हमको मीता;
हे कृष्ण समझा दो ना, हमें तू अपनी गीता;
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे कृष्ण!
-अमृताकाशी
Wednesday, October 19, 2011
Fwd: <* RIVER AND CIVILIZATION- SECTION *> by P. R. Sarkar [Book:PROUT in a Nutshell,Part 09:03]
From: Anandasamarpana anandamargii
Date: Tue, 18 Oct 2011 07:23:15 -0700 (PDT)
Subject: <* RIVER AND CIVILIZATION- SECTION *> by P. R. Sarkar
[Book:PROUT in a Nutshell,Part 09:03]
To: "Latest Topic: <*BEWARE OF DOGMA*> by P. R. Sarkar [Book:PROUT in
a Nutshell,Part 09:02]" <discussonprout@googlegroups.com>
<* RIVER AND CIVILIZATION- SECTION *> by P. R. Sarkar [Book:PROUT in a
Nutshell,Part 09:03]
River and civilization – section A by P. R. Sarkar
Human life is the most developed and final stage of animal life. The
speciality of human life is that it has dharma. In animal life there
is no dharma.
Civilization is a collection of usages, manners, etiquette,
formalities, ideologies and love. The culture of the entire humanity
is the same, butcivilization varies from society to society.
Human civilization is created in, and moves along, river valleys. Like
a river, human civilization also has three stages – hillstage, plain
stage and delta stage. From the hill stage, it moves to the plain
stage and from the plain stage to the delta stage. A civilization
starts in the hill stage, develops in the plain stage, and matures in
the delta stage.
Why are civilizations created in, and why do they move along, river-
valleys? In ancient times, up until the Stone Age, humans could not
dig wells and depended uponnatural sources of water. As such, human
habitationstarted from springs, fountains, waterfalls, rivers, etc.
Animals also select such places for habitation; only birds do not
follow this rule. Thus, human habitation started near valleys,
fountains, waterfalls, springs, and particularly near rivers. Due to
the assemblage of humans in the river-valleys, the first stage of
civilization started there.
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http://proutist.fi/content/river-and-civilization-%E2%80%93-section-p-r-sarkar
Monday, October 17, 2011
Fwd: <* BEWARE OF DOGMA *> by P. R. Sarkar [Book:PROUT in a Nutshell,Part 09:02]
From: Anandasamarpana anandamargii
Date: Mon, 17 Oct 2011 03:57:02 -0700 (PDT)
Subject: <* BEWARE OF DOGMA *> by P. R. Sarkar [Book:PROUT in a
Nutshell,Part 09:02]
To: "Latest Topic: <*THE SPIRIT OF SOCIETY*> by P. R. Sarkar
[Book:PROUT in a Nutshell,Part 09:01]"
<discussonprout@googlegroups.com>
<* BEWARE OF DOGMA *> by P. R. Sarkar [Book:PROUT in a Nutshell,Part
09:02]
Beware of dogma by P. R. Sarkar
Structures
So far as structural solidarity is concerned, the best shape is the
oval shape. "Oval" means (in Latin ovum means egg) "similar to an egg,
not exactly like an egg but to some extent like an egg; not exactly
elliptical but to some extent elliptical". All celestial bodies are of
that shape. That's why in Sanskrit this universe is called Brahmáńd́a.
(Ańd́ameans "egg". And from the Sanskrit word ańd́a itbecame ańd́á in
the Urdulanguage.)
Now, this universe of oursis very big, but not infinite. It is an
elliptical figure, an oval figure, which means it has a boundary line.
Yes, it is very big, and actually so big that we cannot measure it;
but in theory it can be measured.
Just now I said the most convenient figure is the oval, or elliptical,
figure. Take the case of a small atom. Here what happens? In that
structurethere is the nucleus, the heaviest matter of the structure,
and the electrons are moving round that nucleus. A similar structure
is our ethereal structure: the earth is the nucleus, and the moon is
moving round that nucleus. The next bigger structure is our solar
system: the sun is the nucleus, and so many planets are moving round
it. And the biggest structure is the Cosmological structure: Parama
Puruśa (Puruśottama, the Supreme Nucleus, the Supreme Hub) is in the
middle, and so many animated and non-animated objects are moving round
it.
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